बस्तर की सियासत का मिज़ाज: दो सत्ताओं की कमान और जनता की नाराज़गी

Gajendra Singh Thakur
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छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव के बाद सियासत की बिसात एक बार फिर सज चुकी है।  भारतीय जनता पार्टी ने बहुमत के सहारे सत्ता पर काबिज़ होकर नई पारी की शुरुआत कर दी है, जबकि कांग्रेस इस बार पिछली बार की तुलना में काफी पीछे रह गई।
दिलचस्प यह है कि प्रदेश की राजनीति में सत्ता की चाबी कहलाने वाला बस्तर एक बार फिर चर्चा के केंद्र में है वही बस्तर जिसने पिछले चुनाव में कांग्रेस को सत्ता की सीढ़ियाँ चढ़ाई थीं। आज भी प्रदेश की दोनों प्रमुख पार्टियों के अध्यक्ष इसी धरती के सपूत हैं।

भाजपा की कमान किरण सिंह देव के हाथों में है एक ऐसे नेता जिन्होंने साधारण कार्यकर्ता के रूप में अपनी सियासी यात्रा शुरू की और संगठन, अनुशासन तथा समर्पण से शीर्ष पद तक पहुँचे। उनका संघर्ष एक प्रेरणा है, परंतु अब वही जनता यह सवाल उठाने लगी है कि क्या किरण सिंह देव का झुकाव मैदानी राजनीति की ओर ज़्यादा नहीं हो गया है?
बस्तर के कई मुद्दे पीछे छूटते नज़र आ रहे हैं, और यह धारणा बन रही है कि वे अब खास तबकेके नेता बन गए हैं, जिनकी पहुँच आम आदमी के दुख-दर्द तक पहले जैसी नहीं रही।
परिणामस्वरूप, कार्यकर्ताओं से लेकर स्थानीय जनता तक के बीच एक हल्की मगर स्पष्ट नाराज़गी की लहर देखी जा रही है।

दूसरी ओर कांग्रेस की कमान दीपक बैज के हाथों में है जो छात्र राजनीति से उभरे, ज़मीन से जुड़े और बस्तर की मिट्टी से उठे नेता माने जाते हैं।
विधानसभा से लेकर लोकसभा तक उनका सफर इस बात का प्रमाण रहा है कि वे जनता की नब्ज़ पहचानते हैं। लेकिन हाल के दिनों में उनकी कार्यशैली को लेकर भी सवाल उठने लगे हैं।
चाहे टिकट वितरण की बात हो या संगठनात्मक फैसले कांग्रेस के भीतर बेचैनी और असहमति की लकीरें गहरी होती जा रही हैं।

असल में, बस्तर का सियासी मिज़ाज हमेशा से अनोखा रहा है यहां की राजनीतिक हवा यह तय करती है कि रायपुर की गद्दी पर कौन बैठेगा।
लेकिन अब सवाल यह है कि जब प्रदेश की दोनों ही राष्ट्रीय पार्टियों की कमान बस्तर के नेताओं के पास है, तो फिर यही इलाका सबसे ज़्यादा नाराज़ क्यों है?
अगर जनता अपने ही नेताओं से दूरी महसूस कर रही है, तो यह किसी भी दल के लिए एक सियासी चेतावनी है।

कुल मिलाकर, बस्तर, जो कभी सत्ता की कुंजी को दिशा देता था, आज खुद असमंजस में खड़ा दिखाई देता है।
दोनों बस्तर के सियासी सरदारअगर अपने ही क्षेत्र में कमजोर पड़ रहे हैं, तो इसका असर पूरे छत्तीसगढ़ की राजनीति पर पड़ना तय है।
कहीं ऐसा न हो कि जो इलाका कभी ताज पहनाता था, वही अब तख़्त पलटने का कारण बन जाए।


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