नक्सलियों की प्रेम कथा पर आधारित बहु प्रतीक्षित छत्तीसगढ़ी फीचर फिल्म “माटी” लंबे इंतज़ार के बाद रिलीज हो चुकी है। रिलीज के साथ ही दर्शकों की प्रतिक्रियाओं में मिला-जुला रंग दिखाई दिया। प्रमोशन कैंप और सोशल मीडिया प्रचार ने दर्शकों में उत्सुकता का स्तर बेहद ऊपर कर दिया था, लेकिन वही उत्साह फिल्म थिएटर में टिक नहीं पाया। कई लोगों ने इसे देखने के बाद साफ कहा — “उम्मीदें ज्यादा थीं, पर फिल्म उतना प्रभाव नहीं छोड़ सकी।” फिल्म की कहानी नक्सलवाद की पृष्ठभूमि पर आधारित प्रेम कथा को केंद्र में रखकर चलती है। निर्माता संपत झा की कहानी पर आधारित फिल्म का निर्देशन और पटकथा अविनाश प्रसाद ने संभाला है। प्रेम, संघर्ष और विचारधारा के टकराव को जोड़ने की कोशिश स्पष्ट दिखाई देती है, लेकिन कहानी का ताना-बाना कई जगह बिखरा हुआ महसूस होता है। दर्शक यह महसूस करते हैं कि या तो फिल्म रोमांस को पूरी तरह उभारने में पीछे रह गई, या फिर नक्सली संघर्ष को यथार्थ के करीब ले जाने में कमी रह गई।
संगीत — संगीत फिल्म की सबसे दमदार कोशिशों में से एक
है। छत्तीसगढ़ी और बस्तरिया परंपरा को मिलाकर बनाए गए गीतों में सांस्कृतिक रंग
भरने की कोशिश की गई है। कुछ गीत निश्चित रूप से मनोरंजन और ताल बनाए रखते हैं,
लेकिन सभी गाने दर्शकों की उम्मीद को नहीं छू
पाए। दर्शकों का कहना है कि > एक ओर छत्तीसगढ़िया रूह से तरबतर कर देने वाला मज़ा मिलता है, वहीं दूसरी ओर बस्तरिया लोकधुन आम दर्शक वर्ग से कनेक्ट
नहीं कर पाती। हालाँकि गीत फिल्म से पहले ही
यूट्यूब पर रिलीज कर दिए गए थे, और वहां भी मिश्रित
प्रतिक्रिया देखने को मिली थी। जिसे आप youtube व्यू में दख सकते है.
भाषा बैरियर और कहानी में बिखराव- छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद का मुख्य केंद्र दक्षिण बस्तर रहा है, और फिल्म भी मुख्य रूप से यहीं की पृष्ठभूमि पर आधारित है। लेकिन स्टोरीटेलिंग के दौरान भाषा और संवाद शैली में असमानता दर्शकों के लिए बैरियर बन गई। फिल्म कई जगह छत्तीसगढ़ी और बस्तरिया बोली के बीच खो जाती है, जिससे दर्शक कथानक से भावनात्मक रूप से नहीं जुड़ पाते। दूसरी सबसे बड़ी समस्या — कमजोर पटकथा। फिल्म देखने के लिए पैसा खर्च करने वाला दर्शक कहानी में गहराई, कसाव, भावना और मनोरंजन की तलाश करता है। वह कैमरा एंगल, तकनीकी चुनौतियों या बजट की कठिनाइयों को नहीं देखता — उसे सिर्फ मनोरंजन चाहिए।
मेहनत तो रही, पर संसाधन कम पड़े - फिल्म की टीम ने मेहनत में कोई कमी नहीं छोड़ी है, यह स्क्रीन पर साफ दिखता है। लेकिन तकनीकी रूप से कहीं-कहीं कमियाँ भी दिखाई देती हैं जैसे सिनेमैटोग्राफी में असंतुलन, कुछ दृश्यों का अचानक कट जाना, क्लाइमैक्स में गति का टूटना. ये सभी संकेत बताते हैं कि फिल्म निर्माण में संसाधनों, समय और तकनीकी सुदृढ़ता का साथ मिलना अनिवार्य है। शायद यही वजह है कि साउथ इंडियन सिनेमा — चाहे तेलुगु, तमिल या कन्नड़ — क्षेत्रीय भाषाओं में होते हुए भी विश्व स्तर पर कारोबार करता है, क्योंकि तकनीकी मजबूती और उच्च प्रोडक्शन वैल्यू उनकी प्राथमिकता होती है।
कलाकारों की मेहनत
उल्लेखनीय- फिल्म भले ही तकनकी कमजोरी के कारण उम्मीदों तक न पहुँच पाई हो, लेकिन कलाकारों की परफॉर्मेंस और समर्पण जरूर
सराहनीय है। मुख्य कलाकारों ने अपने किरदारों में डूबकर काम किया है। विशेष रूप से
नक्सली बैकग्राउंड वाले सीन में भाव और बॉडी-लैंग्वेज का प्राकृतिक प्रस्तुतिकरण
उनकी तैयारी को दर्शाता है। फिल्म में ग्रामीण संस्कृति, वेशभूषा, लोकेशन और प्राकृतिक
सौंदर्य को दिखाने में टीम की प्रतिबद्धता स्पष्ट दिखती है।
कलाकारों के प्रति मेरा एक समीक्षक होने के नाते व्यक्तिगत सराहना और प्रेरणा - पात्रों को जीवंत बनाने की असली शक्ति कलाकारों से आती है — और “माटी” में यह सबसे मजबूत पहलू साबित हुआ। हर कलाकार ने अपने किरदार को इस तरह जिया कि दर्शक उनके भाव, संघर्ष, प्रेम, दर्द और विचारधारा को महसूस कर सके। नायिका के मासूम चेहरे के पीछे छिपी दृढ़ता, नायक के भीतर संघर्ष और उलझन की झलक, नक्सली कमांडर होते हुए भी सख्त लेकिन मानवीय छवि, और ग्रामीण पात्रों की सरलता — इन सभी ने मिलकर फिल्म में जान फूंकी। चाहे स्क्रीन टाइम छोटा हो या बड़ा, हर अभिनेता का योगदान महत्वपूर्ण रहा। सबसे खास बात यह है कि फिल्म के निर्माता और निर्देशक ने स्थानीय कलाकारों और स्थानीय संस्कृति पर भरोसा किया — और यही उस मेहनत की पहचान है। फिल्म तकनीकी रूप से भले ही अपेक्षाओं को पूरी तरह न छू सकी हो, लेकिन यह निस्संदेह माना जाएगा कि “माटी” ने छत्तीसगढ़ और बस्तर के प्रतिभाशाली युवाओं को अपने सपनों पर टिके रहने का संदेश दिया है। यह फिल्म यह साबित करती है कि बड़े उद्योगों की तरह ही — हमारे कलाकार, हमारे तकनीशियन और हमारी सृजनशीलता लगातार आगे बढ़ने की क्षमता रखती है।


