विशेष रिपोर्ट :-
भारत में नक्सल
आंदोलन के इतिहास में यदि किसी एक नाम को सबसे रणनीतिक और प्रभावशाली नेतृत्व के
रूप में देखा जाता है, तो वह है बसवा राजू। उनका पूरा नाम कठा सुब्बा राव
उर्फ बसवा राजू था। माओवादी संगठन
के शीर्ष नेतृत्व में वे इतने प्रभावशाली थे कि उनकी रणनीति और युद्धक सोच ने
नक्सल आंदोलन को एक दशक तक जीवित रखा। लेकिन, उनकी मौत के साथ न केवल संगठन का एक
अनुभवी कमांडर गया, बल्कि नक्सलवाद की
वैचारिक और रणनीतिक रीढ़ भी टूट गई।
बसवा राजू — पढ़ा-लिखा नौजवान जो बंदूक की राह पर चला गया
आंध्र प्रदेश के
श्रीकाकुलम जिले के एक साधारण मगर शिक्षित परिवार में जन्मे बसवा राजू शुरू से ही एक मेधावी छात्र थे। उन्होंने रीजनल इंजीनियरिंग
कॉलेज, वारणगल (अब NIT Warangal) से B.Tech की डिग्री हासिल
की और अनुशासन व तेज दिमाग के लिए जाने जाते थे। इंजीनियरिंग जैसी प्रतिष्ठित
शिक्षा के बाद उनके सामने उज्ज्वल करियर की राह थी, लेकिन कॉलेज के दिनों में उनकी सोच की दिशा बदल गई। विचारधारा की ओर
झुकाव - वारंगल और
हैदराबाद के दौर में फैल रही वामपंथी छात्र राजनीति और समाज में व्याप्त गरीबी व भ्रष्टाचार ने राजू को गहराई से प्रभावित किया। 1979 में कॉलेज आंदोलन
के दौरान हुई पुलिस कार्रवाई ने उनके भीतर यह विश्वास जगा दिया कि
“प्रणाली के भीतर
रहकर बदलाव संभव नहीं — प्रणाली को हिलाना
पड़ेगा।” पढ़ाई के बाद उन्होंने कुछ समय भूमिहीन किसानों और सामाजिक आंदोलनों के बीच काम किया, लेकिन जल्द ही माओवादी विचारधारा से पूरी तरह जुड़ गए। 1980 के दशक में उन्होंने भूमिगत जीवन अपना लिया और
सशस्त्र संघर्ष के रास्ते पर चल पड़े। उनकी तकनीकी शिक्षा, संगठनात्मक क्षमता और रणनीतिक सोच ने उन्हें जल्दी ही संगठन का शीर्ष सैन्य कमांडर बना दिया — यही से “बसवा राजू युग” की शुरुआत हुई।
बसवा राजू का उदय
और संगठन में बढ़ता कद
1980 के दशक के अंत में
वे पीपुल्स वार ग्रुप से जुड़े और धीरे-धीरे केंद्रीय समिति तक पहुंचे। उनकी सैन्य रणनीति, भौगोलिक समझ और गुप्त नेटवर्क खड़ा करने की क्षमता के कारण
संगठन में उन्हें “मुख्य रणनीतिकार” कहा जाने लगा।माओवादी संगठन में उनकी
स्थिति इतनी मजबूत थी कि बड़े हमलों से पहले अंतिम निर्णय उन्हीं की सहमति से होता
था।
बसवा राजू के नेतृत्व में हुई पाँच बड़ी घटनाएँ
1 कोरापुट शस्त्रागार लूट (ओडिशा, 2004) - बसवा राजू की योजना के तहत 6 फरवरी 2004 को ओडिशा के कोरापुट में नक्सलियों ने इतिहास की सबसे बड़ी
हथियार लूट को अंजाम दिया। 1000 से अधिक हथियार, जिनमें एके-47, इंसास राइफल और लाखों कारतूस शामिल थे, माओवादियों के हाथ लगे। इस हमले ने पूरे देश की सुरक्षा एजेंसियों को हिला दिया। इस
लूट के बाद नक्सलियों की युद्ध क्षमता कई गुना बढ़ गई।
2 जहानाबाद जेल
ब्रेक (बिहार, 2005) - 13 नवंबर 2005 को बसवा राजू के नेतृत्व में माओवादियों ने बिहार की
जहानाबाद केंद्रीय जेल पर धावा बोल दिया। करीब 1000 सशस्त्र नक्सली रात के अंधेरे में घुसे
और 389 कैदियों को छुड़ा लिया। यह एशिया की सबसे बड़ी जेल ब्रेक घटना मानी जाती है। हमले के दौरान नक्सलियों ने 30 नक्सल विरोधियों को भी अगवा कर लिया था, जिनका आज तक कोई सुराग नहीं मिला।
3 दक्षिण बस्तर नरसंहार (छत्तीसगढ़, 2010) - 6 अप्रैल 2010 को बस्तर के
दंतेवाड़ा जिले के ताड़मेतला के जंगलों में बसवा राजू की बनाई रणनीति ने 76 CRPF जवानों की जान ले ली। यह भारतीय सुरक्षा
बलों पर अब तक का सबसे बड़ा नक्सली हमला था। राजू ने हमले से पहले इलाके की
भौगोलिक बनावट का विस्तृत अध्ययन किया था और जवानों की रूटीन पर निगरानी रखी थी। इस
हमले ने पूरे देश को झकझोर दिया और माओवादी नेटवर्क की भयावह ताकत सामने आई।
4 झीरम घाटी हमला (छत्तीसगढ़, 2013)-
25 मई 2013 को बस्तर की झीरम घाटी में कांग्रेस की
परिवर्तन यात्रा पर हमला कर माओवादियों ने 33 लोगों की हत्या की, जिनमें 27 कांग्रेस नेता
शामिल थे। बीते दिनों सरेंडर हुए नक्सलियों ने पूछताछ में बताया कि इस हमले की पूरी रणनीति बसवा
राजू ने बनाई थी। बताया
जाता है कि झीरम जैसी भौगोलिक स्थिति एक गांव में बनाकर हमला करने का अभ्यास तक
करवाया गया था। यह घटना भारत के राजनीतिक इतिहास में सबसे बड़ा नक्सली हमला थी।
5 अरकू घाटी हत्याकांड (आंध्र प्रदेश, 2018)-
बसवा राजू के आदेश
पर अक्टूबर 2018 में अरकू घाटी
(विशाखापट्टनम) में तेलुगू देशम पार्टी के विधायक सरवेश्वर राव और पूर्व विधायक सेव्यरी सोमा की हत्या कर दी गई। 50 से अधिक नक्सलियों ने नेताओं को बातचीत के बहाने बुलाया और
मौके पर ही मार दिया।
हमले की वजह थी
बॉक्साइट खदानों को लेकर चल रहा विवाद। यह बसवा राजू का अंतिम बड़ा ऑपरेशन माना
जाता है।
बसवा राजू की मौत और नक्सली संगठन पर असर
2021 में बसवा राजू की
मौत (बीमारी और सुरक्षा बलों की दबाव में) के बाद माओवादी संगठन में गहरा नेतृत्व
संकट पैदा हो गया। उनकी रणनीति पर आधारित युद्धक ढांचा चरमरा गया। वो केवल एक
कमांडर नहीं, बल्कि संगठन का
वैचारिक ‘थिंकटैंक’ थे। उनकी अनुपस्थिति ने माओवादियों के
भीतर भ्रम और दिशा की कमी पैदा की। आज वही इलाका — बस्तर, दंतेवाड़ा, बीजापुर और सुकमा — जो कभी बसवा राजू की रणनीति का केंद्र
हुआ करता था, अब आत्मसमर्पण और मुख्यधारा
में लौटने की कहानियों से भर गया है। सुरक्षा बलों की लगातार घेराबंदी, सड़कें, मोबाइल नेटवर्क, और सरकारी योजनाओं की पहुँच ने नक्सलियों की ज़मीन खिसका दी
है। जो कभी ‘रेड कॉरिडोर’ कहलाता था, वह अब ‘डेवलपमेंट कॉरिडोर’ में बदलता दिख रहा है। गौरतलब है की बसवा
राजू की मौत केवल एक माओवादी नेता का अंत नहीं थी —वह नक्सल आंदोलन के एक युग का समापन माना जा रहा है । जिस
बसवा राजू ने देशभर में हिंसा की रणनीति बनाई, वही अब संगठन की गिरती पकड़ का प्रतीक बन गया है। उनकी मौत
के बाद वैचारिक रूप से संगठन कमजोर हुआ, और नक्सलियों की नई पीढ़ी में वह अनुशासन या स्पष्ट दिशा
नहीं दिखती। बस्तर आज उस मोड़ पर है जहाँ बंदूकों की जगह विकास योजनाओं की गूंज
सुनाई दे रही है।
स्रोत:
यह लेख नक्सली
घटनाओं पर प्रकाशित राष्ट्रीय समाचार रिपोर्टों, सरकारी दस्तावेज़ों, और माओवादी संगठनों द्वारा जारी साहित्यिक घोषणाओं के
विश्लेषण पर आधारित है।