छत्तीसगढ़ में अफसरों पर चारित्रिक विवाद: क्या पावर रिश्तों से बड़ा हो गया है?

Gajendra Singh Thakur
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छत्तीसगढ़ में बीते कुछ महीनों में दो ऐसी घटनाएं सामने आई हैं, जिन्होंने लोगों के ज़ेहन में कई सवाल खड़े कर दिए हैं।
पहला मामला दंतेवाड़ा के आदिवासी विकास विभाग के अधिकारी आनंद जी सिंह से जुड़ा था और दूसरा, प्रदेश के वरिष्ठ व प्रभावशाली आईपीएस अधिकारी रतनलाल डांगी से।
दोनों ही घटनाओं में एक अजीब सी समानता है एक तरफ पावरफुल अफसर, और दूसरी तरफ एक महिला।
अब सवाल यह है कि आखिर कौन किसे फंसाता है?
क्या महिलाएं ताक़तवर अफसरों को अपने जाल में लपेट लेती हैं, या अफसर अपनी हैसियत और असर से महिलाओं को रिझाते हैं और बाद में खुद उसी जाल में फंस जाते हैं?


हमारा समाज हमेशा से मर्द-प्रधान रहा है। जब भी किसी पुरुष और महिला का विवाद सामने आता है,
लोगों की नज़र सबसे पहले औरत के चरित्र पर जाती है।
लेकिन मेरा मानना है कि जब तक मर्द खुद कमज़ोरी न दिखाए, तब तक कोई औरत उसे फंसा नहीं सकती।

इन दोनों अधिकारियोंका सम्बन्ध बस्तर से रहा है और वे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर से यहाँ के पत्रकारों से जुड़े थे, इसलिए उनके खिलाफ लगे आरोपों पर यक़ीन करना आसान नहीं था।
आनंद जी सिंह का सामाजिक और व्यावहारिक चरित्र कभी ऐसा नहीं दिखा कि वे किसी महिला के चक्कर में हों।
लेकिन जब उनकी जमानत याचिका में उनके खुद के बयान सामने आए, तो मेरे अंदर का भ्रम टूट गया।

वहीं, रतनलाल डांगी का मामला तो और भी चौंकाने वाला है।
उन्होंने खुद अपने पत्र में जो बातें लिखीं, उनसे साफ़ होता है कि दोनों के बीच सिर्फ मुलाक़ातें नहीं, बल्कि गहरे रिश्ते भी रहे।
अब सवाल यह है कि इस रिश्ते में कौन वाक़ई में पीड़ित था और कौन चालाक?
किसने किसका इस्तेमाल किया और कौन अब खुद को निर्दोष बताने की कोशिश कर रहा है?


हमारा समाज अक्सर ऐसे मामलों में औरत पर इल्ज़ाम लगाकर मामला खत्म समझ लेता है,
लेकिन सच्चाई इससे कहीं गहरी होती है।
अगर यही इल्ज़ाम किसी आम आदमी पर लगे होते,
तो क्या पुलिस या सिस्टम उसे उतनी ही राहत देता जितनी इन अफसरों को मिल रही है?
यह सोचना ज़रूरी है।

मुख्यमंत्री ने कहा है कि किसी को बख्शा नहीं जाएगा
तो फिर यह बात सब पर बराबरी से लागू होनी चाहिए।
अगर अधिकारी यह दावा करते हैं कि उन्हें ब्लैकमेल किया गया,
तो उनके पूरे कार्यकाल की जांच होनी चाहिए।
क्योंकि जब निजी रिश्ते सरकारी कामकाज में घुल-मिल जाते हैं,
तो फ़ैसलों की नीयत भी संदिग्ध हो जाती है।


सवाल तो यही है की आखिर यह सिलसिला क्यों बार-बार दोहराया जा रहा है?
क्या यह सिर्फ व्यक्तिगत कमज़ोरी है या उस सिस्टम की नाकामी,
जहां ओहदा इंसानियत पर भारी पड़ जाता है?

चाहे मामला आपसी रज़ामंदी का हो या ज़ुल्म का
सच्चाई यह है कि दोनों ही पक्षों को जवाबदेह ठहराना चाहिए।
क्योंकि रिश्ता अगर स्वार्थ से शुरू होता है, तो उसका अंजाम हमेशा शर्मिंदगी ही होता है।


नतीजा - आज समाज को यह समझने की ज़रूरत है कि पावरसिर्फ कुर्सी या पद का नाम नहीं,
बल्कि ज़िम्मेदारी और संयम का दूसरा नाम है।
अगर अफसर खुद अपनी मर्यादाओं को भूल जाएंगे,
तो फिर जनता और न्याय पर भरोसा कैसे कायम रहेगा?

इसलिए ज़रूरी है कि जांच सिर्फ कागज़ों में न रह जाए,
बल्कि सच्चाई तक पहुँचे चाहे वह किसी के भी खिलाफ़ क्यों न हो।

  

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